Thursday, December 23, 2010

तेरे तसव्वुर को कुछ ऐसे अंदाज में बयां करते हैं हम..
तबस्सुम जी-जान से लुटाया तब भी जब आँखें थी नम..

Sunday, November 28, 2010

तुम्हारी यादों को अपनी
चुन्नी का
सफ़ेद कफ़न ओढा रखा था...
आज फिर उसीको-
ओढ़नी बनाये
घूम रही हूँ..
बाजार से कुछ चीजें
खरीदनी बाकी रह गयी थीं...

Saturday, November 20, 2010

नजर में झांक लूँ तो मौजूं तमाम शहर है..
ये मेरी चाहत का सहर है..
या तेरी तमन्नाओं का घर है..
इश्क की उम्र यूँ तो बस चार पहर है..
जाने तेरे अंदाज़ में क्या जादू है कि..
मेरे हर एहसास में तेरी शिद्दत का बसर है..
कायनात से भी उम्दा ये तेरा दर है..
इस ख्वाब के बिना अब कहाँ गुजर है..?

Saturday, October 23, 2010

प्रेम के समंदर की त्रिज्या का माप किसे पता है ..
ह्रदय में उठ रहे भंवर का अपकेंद्री बल अलहदा है..
अभिराम क्षितिज मृगमरीचिका सा आँखों का धोखा है..
भागते वायुमंडल को गुरुत्वाकर्षण ने ही तो रोका है..

धरती की गर्भ में जब फण तीव्र शेषनाग लहराता है..
द्रुत दामिनी तड़ित से अम्बर पर चित्र बन जाता है..
कह दे कोई उर्जा का वह अतुल्य स्त्रोत कहाँ छिपा है..
भौतिकी की सीमा का क्या बड़वानल को भी पता है..?

कौन माप सका है अबतक समुद्र की उर्मियों उत्ताल को..
नक्षत्र निकर, तारे और अगणित ग्रहों के जाल को..
जीवन जिसकी चाल से अकस्मात् रूप पा जाता है..
उस आकाशीय पिंड की दशा की कहाँ कोई परिभाषा है..

तूफानों की हलचल पाखी को, असल तत्ववेत्ता हैं..
काग क्यूँ हरबार अनजानी कोकिला के अंडे सेता है...?
इस वटवृक्ष का सचमुच ही आधार गगन में फैला है..
जान के भी मानुष कब अमृत रहस्य को चेता है..!

जिजीविषा पर दूभ का क्या सर्वाधिकार सुरक्षित है..?
जैव क्रिया सांसारिकता बस अर्थशास्त्र को ही लक्षित है..
सृष्टि स्वयं में विज्ञान का अद्भुत प्रदर्श औ' आख्यान है..
प्रमेय ज्ञान भी  मान्यताओं के अनुभूत जाल से रक्षित है..!

सूर्य प्रकाश और जल का पाया कहाँ नर ने विकल्प है..!
समय भ्रमण और प्रायोजित जीवन विज्ञान के गल्प हैं..!!
प्राकृतिक ऊष्मा जबतक मानव ह्रदय में विद्यमान है..
स्वतःस्फूर्तता ही जीवन की अप्रतिम विशिष्ट पहचान है..!!!

Sunday, October 17, 2010

रात बड़ी अँधेरी और खदशे तमाम है..
जिंदगी कि इस राह में
दुश्वारियां तो आम हैं..

उर्ज की राह तकते रहे..
जब भी आँखे खोली
तो पाया बस शाम है...

बेकरारी जुस्तजू तनहाइयों के रोग हैं
ये काँटों का सफ़र है..
जिंदगी तो बस नाम है..

ढूंढने से नर्म रेशे भी मिलेंगे नहीं..
दर्द सबसे बड़ा रिश्ता है..
मोहब्बत का ही हमनाम है..

आज इन्द्रधनुष कल तूफानों का दौर होगा..
कितनी परतें कई रंग समेटे है..
ये दुनिया बड़ी झाम है..

तुम खोजते हो उसको जमी की गर्त में...
और मै हरबार सोचती हूँ कि
तेरी धडकनों में राम है...

Thursday, September 2, 2010

बहुत साल पहले एक कविता लिखी थी..शायद ७-८ साल पहले.. तब मै 8th कक्षा में थी ..आज बड़ी मुश्किल से पाया है उसे... तो सोचा की उसे आप तक पहुंचाऊँ.. शीर्षक रखा था- बदनाम बस्ती...

बाबूजी ये हमारी अँधेरी गुमनाम बस्ती है..
दर्द- गम तो नहीं पर आबरू सस्ती है..


संग रंगीन ख्वाब नहीं, तल्ख़ हकीकत है..
दो जून रोटी और कपडे भी गनीमत हैं..
नसीब अँधेरा,जिंदगी दुखों का डेरा है..
मानो ब्रह्मा ने भी हमें अनगढ़ ही उकेरा है..
हरेक पल हमारा बदनसीबी का बसेरा है..
दिलो दिमाग हरओर छाया घनघोर अँधेरा है..


रंज गम की ही बस यहाँ पर गश्ती है..
बाबूजी, ये हमारी चोटिल, बेजान बस्ती है..!!


मानते हैं कि जीकर भी कुछ फायदा है नहीं
जिल्लत-ऐ-जर्द जिंदगी का साया हटेगा नहीं
अच्छा भैय्या! जियो तुम्ही हमारे रचित महल में
बेनाम लाशों पे हमारी चलो खूब मचल के..
जीके या मरके देंगे बस तेरे ही ख्वाबों को जमीं
तब भी कसम है इन आँखों को, आई जो नमी..!!


मान भी लो कि हमीं तुम्हारे सुखों कि कश्ती हैं
बाबूजी! फिर भी लगती तुम्हे ये अनजान बस्ती है..?

पूछते हो तो चलो एक जाना राज बताऊँ.
हाल इस बदनसीब चमन का तुम्हे भी सुनाऊँ
सभ्य तो तुम बड़े हो पर सभ्यता हमरी लूटकर..
मर्यादा अपनी निभाते हो मलीन गात हमरी चूसकर
छोड़ो भी अगर जमीर खुद तुम्हारा ही शर्मसार है
आ जाना जब जी करे, खुला ये बाजार है..


हरवक्त सौगात तुम्हे मस्ती ही मस्ती है..
जी हाँ बाबूजी! ये बड़ी बदनाम बस्ती है.

 दस्तूर-ऐ-दुनिया खूब समझ लिया हमने
जीतता है वही जमी को खूब मसला जिसने..
पर याद इतना रखो बस बिसारो नहीं..
बिना जमी के ज़माने में भी है लौ नहीं
हरपाल एक दोराहे पे हम हैं खड़े
बंद आँखों से नहीं माप सकोगे हमें


बहार तो नहीं बरक्स खिजां कि आश्वस्ति है..
बाबूजी! ये तो हमारी अनाम बस्ती है


लेकिन बस अब और न लो परीक्षा हमारी
तुम्हारे लिए अबतक अपनी हर इच्छा है मरी
पर बहुत सहा हमने, अब तुम्हारी है बारी
कंही हो न जाय ये बदनसीबी तुमपर भी तारी
बस! बंद करो ये जुल्मों सितम ढाने अब..
पलट जाये बाज़ी कोई क्या जाने कब....


जरुरत और जिद में हमारी तुम्हारी जब-जब ठनती है
कह देते हो बाबूजी! ये तो बड़ी शैतान बस्ती है..!!


बाबूजी ये वही बेजान, अनजान,बदनाम, अनाम,शैतान बस्ती है..!!

Friday, August 6, 2010

जब हवा कतरा कर बगल से निकल जाना चाहे...
धुप भी अपने पहलु में सिमटकर दामन चुराना चाहे...
जमी संग तो चले पर नजाकत दिखाकर...
आसमा बादलों के सहारे अपना रूप छिपाना चाहे...
सितम दिल ये करे
जब संगदिल मेरे अहसासों से भी किनारा चाहे..


इश्क की कलियाँ इतनी कच्ची...
और कसमों में इतना फरेब किसने डाला खुदा...?
राहे जन्नत गर मुकद्दर नहीं तो सपनों में जान ही क्यूँ दिया..?



मोहब्बत जब दरिया बनकर उमड़ती है तो
इश्क की रस्मे जवान होती हैं...
समंदर इस रंग से निहाल अपने किनारों पे ही क्यूँ गरजता है हरवक्त...
बाखुदा दोष गोया बेवफाई न होकर वक़्त की बेरहमी हो...
वो जो बेजार हैं हमसे ..कह क्यूँ नहीं देते.


एहसास जब कांटे बन जाएँ
और ख्यालों से भी चुभन होने लगे..
ऐ रब!
कोई तो राह होगी जो बंजर में भी प्यार के बीज बो दे..
तुम बस हिम्मत दे देना..
मै सींच लूंगी आँखों के कतरे से भी अपना जन्नत!!!!

Thursday, July 15, 2010

बहुत लिखे हैं बेवफाई के नज्मे , कोई मोहब्बत की बेजारी का भी तो सबब पूछो...
शायरों अब खंजर में वो बात नहीं रही, दीवानों से कातिल नश्तर की चुभन पूछो...

Tuesday, April 20, 2010

आज का राज...
कभी जान  पायेगा  हमारा  समाज ?
तलवे के नीचे चिटक रहा है छोटा कंकड़
आपको लगता है कि
जूतों ने सुनी भी होगी आवाज?
और अगर जूते सुन भी लें तो क्या
लोकतंत्र की तंत्रिकातंत्र भेजना चाहेगी
सर तक वह संवाद
सर पर सज रहा है जो ताज
उसके कुछ खास
निजी
एकदम वैयक्तिक भी तो होंगे साज़
जो बजा रहे होंगे कानों में कोई खास मधुर राग
तो ऐसे में क्या हो गया भला गर
कुछ कंकडों पे नाहक ही गिर गयी ग़ाज़...


हम दुखान्त्वादी
एकदम निरे मुर्ख है जो शायद समझ नहीं पा रहे कि
भूलकर सारे इतिहास
आज फिर से करना चाहिए हमें
मानविकी तंत्र पर विश्वास और
न्याय पर नाज़
कि
रुचिरा और जेसिका  ने
अपने खून से न्याय की धार पैनी कर
बचा दी है जनतंत्र कि लाज .......

Wednesday, January 13, 2010

हवा मुठी में फड़फड़ाने लगी
साँसों ने उगल दिए फलसफे सब
आसमान मेरी चादर से भागा निकल के
दीवारों के बोझ हो गए है हलके...
मेरी छत ने अपना नया ठिकाना जो ढूंढ़ लिया है
हिम्मत को बुन रही हूँ हकीकत के ऊन से
पैबंद लगाने को थोडा उजाला चाहिए
मै रातों में जुगनुओं को पकड़ खेल लेती हूँ भोर होने तक
सर्द रातों की बारिश सा सर्द कुछ टूटता जा रहा भीतर
चुपचाप
बेआवाज सा ...
ताश के पत्ते-
बेगम और गुलाम
भींग हुए भी रंगीन से है...
हाथों के कटोरे में थोड़ी सी रौशनी छिप के
आई मेरे दर तक
दिए को टिमटिमाते देखकर
कूद गयी वो भी चारदीवारी से बाहर..
बित्ते भर जमीन पे कड़ी हूँ..
मौत को फुसलाकर ..
चार गज जमी पाना आसन कब था-



तनहाई ने मुझे जकड के सांकल चढ़ा दिया
रस्ते पे गिरी चवन्नी जैसे इंतिजार करती है
किसी स्कूली बच्चे का