Thursday, September 10, 2009

धुएं का रंग स्याह क्यूँ ....
है राख में इतनी आग क्यूँ ....

अब तक तो चाँद तन्हां था .....
इस बात पर इतना बवाल क्यूँ ....

गर खुश है जमी आसमां संग किसी अनदेखे क्षितिज पर .....
गर बादलों ने बहका दिए हैं बूंदों के कदम जमी पर.....

हवा के रुख ने जो मोड़ डाले है नसीब कायनात के ....
कलियों ने तोड़ डाले है बंधन सभी जमात के ....

तो जिंदगी ने अपने तेवर कम तो नहीं कर दिए....
आफ़ताब ने परछाईयों के रुख तो नहीं मोड़ लिए....

न बदला है नसीब अबतक उन परवानों का....
शमां कुरेदती है ज़ख्म हर दीवानों का....

हम इतने नादां तो नहीं कि
चाँदनी को रोक लें ...

और चाँद जब मांगे हिसाब ...
तो जिंदगी को छोड़ दें....!!!!!
चाँद और मुझमे बस एक दाग का तो फर्क है, आज है जाना मैंने...
मुद्दतों बाद जिंदगी की कैफियत को बड़े करीब से पहचाना मैंने...

कह गए शायर कि मुकम्मल जहाँ सबका नसीब हो सकता नही...
तरद्दुद से तदबीर मिला क्षितिज पर एक नशेमन बना डाला मैंने...

अब तक जो बीती उन तारीखों का सूरत--हाल क्या बयाँ करूँ....
उम्मीद अभी जवां है कि आज आसमां पे लगाया है निशाना मैंने...

खप गयी उम्र उसे ढूंढ़ते दरख्तों-दीवार और मूरत-किताबात में...
सब्र से बैठी तो मौला को दिल के बंजर में लहलहाते है पाया मैंने...

बादलों में छिप गयी थी वो रुपहली लकीर मेरी तकदीर के मारे...
राख से ढूंढ़ के चिंगारी, चिराग--जिंदगी को रौशन बनाया मैंने...

खुली हवा भी मयस्सर नही इंसानियत को कि जमाना ख़राब है...
छोड़ के दुनियादारी सारी लो खुशबुओं का कारोबार संभाला मैंने...