Wednesday, January 13, 2010

हवा मुठी में फड़फड़ाने लगी
साँसों ने उगल दिए फलसफे सब
आसमान मेरी चादर से भागा निकल के
दीवारों के बोझ हो गए है हलके...
मेरी छत ने अपना नया ठिकाना जो ढूंढ़ लिया है
हिम्मत को बुन रही हूँ हकीकत के ऊन से
पैबंद लगाने को थोडा उजाला चाहिए
मै रातों में जुगनुओं को पकड़ खेल लेती हूँ भोर होने तक
सर्द रातों की बारिश सा सर्द कुछ टूटता जा रहा भीतर
चुपचाप
बेआवाज सा ...
ताश के पत्ते-
बेगम और गुलाम
भींग हुए भी रंगीन से है...
हाथों के कटोरे में थोड़ी सी रौशनी छिप के
आई मेरे दर तक
दिए को टिमटिमाते देखकर
कूद गयी वो भी चारदीवारी से बाहर..
बित्ते भर जमीन पे कड़ी हूँ..
मौत को फुसलाकर ..
चार गज जमी पाना आसन कब था-



तनहाई ने मुझे जकड के सांकल चढ़ा दिया
रस्ते पे गिरी चवन्नी जैसे इंतिजार करती है
किसी स्कूली बच्चे का