Thursday, October 15, 2009

खता खुशख्वाबी की थी कि आँखें बंद हो गयी थी...
नही तो इतना आसान भी नहीं था मात खा जाना...

सब अपनी-अपनी दुनिया में चिटकनी चढाए बैठे हैं...
तूफ़ान को ही आना पड़ा फ़र्ज़ उसके दूरियां मिटाना....

खुशियाँ तो भूल गयी है दिलों को मिलाने का हुनर...
ग़मों के जिम्मे आ गया है जिंदगियों को मिलाना...

मंजिल अबकी लाजवाब तय की है इंसानी शय ने...
सबकुछ बस में होगा बस इंसानियत को है भुलाना...

दिल दिमाग रूह सब अपनी जगह हैं अबतक, हद है...
विज्ञान के निकम्मेपन की मिसाल है ये तमाम जमाना...

एक छत बनाई है दूर आसमान से लगाकर हसीं बहुत ...
कमी एक रही गयी है, भूल गए नीचे की सीढियाँ बनाना...

शेर हिरन को खा गया और भेंडिया भेड़ को सरे बाज़ार...
लोकतंत्र की कक्षा में नियम है सबको एक साथ बैठाना...

Friday, October 9, 2009

कसक ....

टूटते कांच से पुछो क्या हकीकत है ज़माने की ...
शबनम को क्या हक है नए ख्वाहिशें जगाने की ....

खिजां ने रुखसारों की सुर्खी चुराई है कुछ यूँ ...
और हिम्मत कहाँ आईना देख मुस्कुराने की ....

तेरे वजूद में आसरा पाने की जद्दोजहद है ...
अब तमन्ना कहाँ आसमान जमी पे लाने की ...

रिन्दों ने मयखाने में सिखाए हैं जो तजुर्बे ...
बाजार में साकी को बेकरारी है आजमाने की ...

सितम ज़माने ने दामन में संजोये इतने कि ...
कसक में जिन्दा हो उठी कशिश मेरे तराने की ...

दर्द -ऐ -दिल हर्फ़ के मोहताज नहीं होते ...
कायनात ने क़यामत को फ़िर जहमत की है बताने की ...