Friday, October 9, 2009

कसक ....

टूटते कांच से पुछो क्या हकीकत है ज़माने की ...
शबनम को क्या हक है नए ख्वाहिशें जगाने की ....

खिजां ने रुखसारों की सुर्खी चुराई है कुछ यूँ ...
और हिम्मत कहाँ आईना देख मुस्कुराने की ....

तेरे वजूद में आसरा पाने की जद्दोजहद है ...
अब तमन्ना कहाँ आसमान जमी पे लाने की ...

रिन्दों ने मयखाने में सिखाए हैं जो तजुर्बे ...
बाजार में साकी को बेकरारी है आजमाने की ...

सितम ज़माने ने दामन में संजोये इतने कि ...
कसक में जिन्दा हो उठी कशिश मेरे तराने की ...

दर्द -ऐ -दिल हर्फ़ के मोहताज नहीं होते ...
कायनात ने क़यामत को फ़िर जहमत की है बताने की ...

3 comments:

  1. Love your poems... they are very fresh and thought provoking.

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  2. टूटते कांच से पुछो क्या हकीकत है ज़माने की ...
    शबनम को क्या हक है नए ख्वाहिशें जगाने की ....

    बहुत सुंदर......!!

    रिन्दों ने मयखाने में सिखाए हैं जो तजुर्बे ...
    बाजार में साकी को बेकरारी है आजमाने की ...


    वाह....लाजवाब.....!!

    गज़ब का लिखते हैं आप ......!!

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  3. Sorry for long come back on your blog. Regarding poem, of course No words to describe/ comment.
    I request you to give reply on each comment.

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