चाँद और मुझमे बस एक दाग का तो फर्क है, आज है जाना मैंने...
मुद्दतों बाद जिंदगी की कैफियत को बड़े करीब से पहचाना मैंने...
कह गए शायर कि मुकम्मल जहाँ सबका नसीब हो सकता नही...
तरद्दुद से तदबीर मिला क्षितिज पर एक नशेमन बना डाला मैंने...
अब तक जो बीती उन तारीखों का सूरत-ऐ-हाल क्या बयाँ करूँ....
उम्मीद अभी जवां है कि आज आसमां पे लगाया है निशाना मैंने...
खप गयी उम्र उसे ढूंढ़ते दरख्तों-दीवार और मूरत-किताबात में...
सब्र से बैठी तो मौला को दिल के बंजर में लहलहाते है पाया मैंने...
बादलों में छिप गयी थी वो रुपहली लकीर मेरी तकदीर के मारे...
राख से ढूंढ़ के चिंगारी, चिराग-ऐ-जिंदगी को रौशन बनाया मैंने...
खुली हवा भी मयस्सर नही इंसानियत को कि जमाना ख़राब है...
छोड़ के दुनियादारी सारी लो खुशबुओं का कारोबार संभाला मैंने...
behtareen...
ReplyDeleteखुली हवा भी मयस्सर नही इंसानियत को कि जमाना ख़राब है...
छोड़ के दुनियादारी सारी लो खुशबुओं का कारोबार संभाला मैंने...
loved those lines!
god bless you.
प्रांजल जी
ReplyDeleteआपने खुशबुओ का कारोबार संभाला है, इसलिये बहुत अच्छा हुआ. अच्छे लोग खुशबू बिखेरते है, तो जिने कि तम्मना बढ जाती है.
आपकि फोलोवर कि लिस्ट मे आ गया हु.