Thursday, September 10, 2009

चाँद और मुझमे बस एक दाग का तो फर्क है, आज है जाना मैंने...
मुद्दतों बाद जिंदगी की कैफियत को बड़े करीब से पहचाना मैंने...

कह गए शायर कि मुकम्मल जहाँ सबका नसीब हो सकता नही...
तरद्दुद से तदबीर मिला क्षितिज पर एक नशेमन बना डाला मैंने...

अब तक जो बीती उन तारीखों का सूरत--हाल क्या बयाँ करूँ....
उम्मीद अभी जवां है कि आज आसमां पे लगाया है निशाना मैंने...

खप गयी उम्र उसे ढूंढ़ते दरख्तों-दीवार और मूरत-किताबात में...
सब्र से बैठी तो मौला को दिल के बंजर में लहलहाते है पाया मैंने...

बादलों में छिप गयी थी वो रुपहली लकीर मेरी तकदीर के मारे...
राख से ढूंढ़ के चिंगारी, चिराग--जिंदगी को रौशन बनाया मैंने...

खुली हवा भी मयस्सर नही इंसानियत को कि जमाना ख़राब है...
छोड़ के दुनियादारी सारी लो खुशबुओं का कारोबार संभाला मैंने...

2 comments:

  1. behtareen...

    खुली हवा भी मयस्सर नही इंसानियत को कि जमाना ख़राब है...
    छोड़ के दुनियादारी सारी लो खुशबुओं का कारोबार संभाला मैंने...

    loved those lines!
    god bless you.

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  2. प्रांजल जी

    आपने खुशबुओ का कारोबार संभाला है, इसलिये बहुत अच्छा हुआ. अच्छे लोग खुशबू बिखेरते है, तो जिने कि तम्मना बढ जाती है.


    आपकि फोलोवर कि लिस्ट मे आ गया हु.

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