Sunday, August 30, 2009

इस डोर के उस छोर पर किसी को मेरी भी तो परवाह होगी...
चौराहे तो है ही पर रास्तों की भी तो कोई अपनी पहचान होगी...

धुआं उठता है तो,उठने दो, मत भागो बेमकसद उसके पीछे...
जरा हौले से राख को छेड़ना,उसके सीने में भी दबी आग होगी...

नर्म रिश्तों पे यूँ खुरदुरे ज़बान के नश्तर तो चलाओ...
मै कहूँ और तुम समझ लो, ऐसी भी तो कोई ज़बान होगी...

वक्त मिलो तो कभी parchayiyon में भी उलझ कर देख लो...
मुझे तो यकीन है कि इससे जिंदगी और भी आसान होगी...

सोचती हूँ इन तस्वीरों पर एक और बार कुंची फेर दूँ....
काश जान लूँ उस शय को जिससे मंसूब मेरी जान होगी...

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