Tuesday, September 8, 2009

ख्वाहिशों के चादर तले मसर्रत के दिए बुझने से लगे हैं....
हसरतों की महफ़िल में तिजारत के समां सजने से लगे हैं....

आसमान के दरों में खोजते रह गए हम आब--हयात...
जमी पे जिंदगी के तारे कुछ गुमसुम से रहने से लगे हैं....

इतना शोर भर गया है अन्दर कि मन बदहवास सा है....
बाहर हैं नजारें ' आँखे बंद तो सन्नाटे भी बजने से लगे हैं....

मंजिल की रहनुमाई में जिन रास्तों पे बढाते गए कदम....
दिल के झरोंखो से देखा तो हर मोड़ अजनबी लगने से लगे है....

भागते रहे सारी रात रौशनी को मुठि में
भर सीने से लगाये....
बस सांझ का ढलना है और उजालों के परत खुलने से लगे है....

मोल जिंदगी का लगाया था सही कि यह फकत बेमिसाल है....
साँसों की डोर से बंधकर हकीकत के फलसफे बिकने से लगे है....

तारीखी रंग निखारने को कुर्बान कर दिए है यूँ जिंदगी के हर्फ़....
गुल मसले से पड़े है और खुशबुओं के कारोबार चमकने से लगे हैं.....

4 comments:

  1. बहुत सुंदर रचना ,सशक्त अभिव्यक्ति

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  2. बहुत ही सुन्दर अहसासों से भरी रचना.
    Bahut Barhia.....isi tarah likhte rahiye




    http://sanjay.bhaskar.blogspot.com

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  3. मेरी उर्दू आप इतनी अच्छी नाही है, पर

    "आपकी शायरी को लब्ज धुंडता ही रह जाता हु,
    अपनी गिरह्बन मे झाकू तो खुद को नही पाता हु."

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