ख्वाहिशों के चादर तले मसर्रत के दिए बुझने से लगे हैं....
हसरतों की महफ़िल में तिजारत के समां सजने से लगे हैं....
आसमान के दरों में खोजते रह गए हम आब-ऐ-हयात...
जमी पे जिंदगी के तारे कुछ गुमसुम से रहने से लगे हैं....
इतना शोर भर गया है अन्दर कि मन बदहवास सा है....
बाहर हैं नजारें औ' आँखे बंद तो सन्नाटे भी बजने से लगे हैं....
मंजिल की रहनुमाई में जिन रास्तों पे बढाते गए कदम....
दिल के झरोंखो से देखा तो हर मोड़ अजनबी लगने से लगे है....
भागते रहे सारी रात रौशनी को मुठि में भर सीने से लगाये....
बस सांझ का ढलना है और उजालों के परत खुलने से लगे है....
मोल जिंदगी का लगाया था सही कि यह फकत बेमिसाल है....
साँसों की डोर से बंधकर हकीकत के फलसफे बिकने से लगे है....
तारीखी रंग निखारने को कुर्बान कर दिए है यूँ जिंदगी के हर्फ़....
गुल मसले से पड़े है और खुशबुओं के कारोबार चमकने से लगे हैं.....
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ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना ,सशक्त अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर अहसासों से भरी रचना.
ReplyDeleteBahut Barhia.....isi tarah likhte rahiye
http://sanjay.bhaskar.blogspot.com
मेरी उर्दू आप इतनी अच्छी नाही है, पर
ReplyDelete"आपकी शायरी को लब्ज धुंडता ही रह जाता हु,
अपनी गिरह्बन मे झाकू तो खुद को नही पाता हु."