Thursday, May 31, 2012

मैंने यूँ ही आवाज लगा दी थी तुम्हे जरुरत कहाँ थी आने की..
शिद्दतों ने पाली थी दुश्वारियां, ये हकीकत थी मेरे अफसाने की...

मस्तमौला !आज फिर इसी दर पर सांझ गुजर दी है तुमने...
रात ढल ही जाएगी तो फिर जरुरत क्या पड़ेगी किसी बहाने की...

जो झींगुरों के शोर, हवाओं की हलचल, कानों की सनसनाहट है बस...
मेरी तस्वीर पर चितेरा उकेर गया है सर्द खामोशियाँ ज़माने की...

मेरे मुरतो सरापे से वक़्त का हुनर मालूम नहीं कर पाओगे...
जवाब ही गर चाहिए हिम्मत कर लो मेरी शाइस्तगी आजमाने की...

यूँ भी मोहब्बत की कोई जात धरम ईमान रब मजहब तो होता नहीं
जाने क्यूँ अब उतना नहीं चुंधिया पाती है रेशमी डोर तेरे ताने बाने की..

जाने कैसी ये तस्वीर है जिसपे हर मौसम का मिजाज रंगीन है..
ओह.. मेरी आँखों में कतरे हैं, इनकी तो आदत है झिलमिलाने की..

अपनी साँसों का वजन संभालना हमे भी सिखा ही देगी जिंदगी...
बियाबान जंगल में तुमने कभी जुर्रत की है गुनगुनाने की..?

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