Friday, September 16, 2011

एक नयी सी ख्वाहिश जन्मी है..
कि चाहत ख्वाब हों
और जिंदगी शराब..

वक़्त की गोटियाँ
मुठी में रगड़कर फेंकते रहे
सपनों के तालाब में
और सूख सूखकर आम के 
पत्ते परिंदों की नर्म सेज बनते रहें..

मेरी आवारगी को बदकिरदार न कर तू..
देख तो
रेत के महल में भी
किरदार के 
दर्पण लगा रखे हैं मैंने..

अहा ..!!
तेरे होठों पे तरन्नुम हैं..
आँखों के शबनम को बता दे न..
इस हवेली का चोर दरवाजा..

अब तो बस पतंगों की डोर खींचे हम
और जिंदगी उनकी परवाज भरती रहे
ऐ शख्स
वो मेरी नफ़रत नहीं..
प्यार का मंझा था..  
हम जानते थे तुम पूछोगे-
कि बादलों के पार जाने का हुनर क्या हैं

अच्छा हो कि आज साकी तू बन जाये रकीब
देख तो..
तलब के होंठों पर थूक
वैसे ही सूख जाती है जैसे 
चीनी के समंदर में 
मोहब्बत के गुलाब...!!!

4 comments:

  1. लाजवाब प्रांजल!
    नायाब

    वक्त की प्यालियों में सरगोशी
    बहुत खलती है तेरी खामोशी

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  2. वक़्त की गोटियाँ
    मुठी में रगड़कर फेंकते रहे
    सपनों के तालाब में
    और सूख सूखकर आम के
    पत्ते परिंदों की नर्म सेज बनते रहें..


    मेरी आवारगी को बदकिरदार न कर तू..
    देख तो
    रेत के महल में भी
    किरदार के
    दर्पण लगा रखे हैं मैंने..

    लाजवाब प्रांजल!
    नायाब

    वक्त की प्यालियों में सरगोशी
    बहुत खलती है तेरी खामोशी

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  3. zahid ji..:)..
    aapki tarif hr bar likhne a naya hausala de jati hai.

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