Friday, August 6, 2010

जब हवा कतरा कर बगल से निकल जाना चाहे...
धुप भी अपने पहलु में सिमटकर दामन चुराना चाहे...
जमी संग तो चले पर नजाकत दिखाकर...
आसमा बादलों के सहारे अपना रूप छिपाना चाहे...
सितम दिल ये करे
जब संगदिल मेरे अहसासों से भी किनारा चाहे..


इश्क की कलियाँ इतनी कच्ची...
और कसमों में इतना फरेब किसने डाला खुदा...?
राहे जन्नत गर मुकद्दर नहीं तो सपनों में जान ही क्यूँ दिया..?



मोहब्बत जब दरिया बनकर उमड़ती है तो
इश्क की रस्मे जवान होती हैं...
समंदर इस रंग से निहाल अपने किनारों पे ही क्यूँ गरजता है हरवक्त...
बाखुदा दोष गोया बेवफाई न होकर वक़्त की बेरहमी हो...
वो जो बेजार हैं हमसे ..कह क्यूँ नहीं देते.


एहसास जब कांटे बन जाएँ
और ख्यालों से भी चुभन होने लगे..
ऐ रब!
कोई तो राह होगी जो बंजर में भी प्यार के बीज बो दे..
तुम बस हिम्मत दे देना..
मै सींच लूंगी आँखों के कतरे से भी अपना जन्नत!!!!