आज का राज...
कभी जान पायेगा हमारा समाज ?
तलवे के नीचे चिटक रहा है छोटा कंकड़
आपको लगता है कि
जूतों ने सुनी भी होगी आवाज?
और अगर जूते सुन भी लें तो क्या
लोकतंत्र की तंत्रिकातंत्र भेजना चाहेगी
सर तक वह संवाद
सर पर सज रहा है जो ताज
उसके कुछ खास
निजी
एकदम वैयक्तिक भी तो होंगे साज़
जो बजा रहे होंगे कानों में कोई खास मधुर राग
तो ऐसे में क्या हो गया भला गर
कुछ कंकडों पे नाहक ही गिर गयी ग़ाज़...
हम दुखान्त्वादी
एकदम निरे मुर्ख है जो शायद समझ नहीं पा रहे कि
भूलकर सारे इतिहास
आज फिर से करना चाहिए हमें
मानविकी तंत्र पर विश्वास और
न्याय पर नाज़
कि
रुचिरा और जेसिका ने
अपने खून से न्याय की धार पैनी कर
बचा दी है जनतंत्र कि लाज .......